विचारधारा की राजनैतिक लडाई
By:-RAJESH GUPTA (ADVOCATE)
विचार व्यक्ति व समाज को आईना दिखाता है और यह विचार ही है, जो किसी व्यक्ति या संगठन को खड़ा करता है या रसातल में ले जाता है। व्यक्ति का निर्माण भी विचार से ही होता है और विचार की लड़ाई लड़कर ही व्यक्तियों ने इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाया है।
महात्मा गांधी व्यक्ति के रूप में एक स्थूल काया थे और जब विचार बनकर समाज के सामने आए, तब 'राष्ट्रपिता' भी लोग कहने लगे। यही विचारधारा राष्ट्र व समाज की दिशाएं निर्धारित करती है और निर्माण और विनाश भी करती है।
यहां मैं यह जरूर कहना चाहूंगा कि विचारधाराएं भिन्न होती हैं इसलिए मतांतर मान्य है, परंतु किसी भी विचार को इसलिए दरकिनार कर देना कि वो अपने खुद के विचारों से मेल नहीं खाता, लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है।
अगर कोई व्यक्ति या संगठन किसी भी विचार को इसलिए सिरे से खारिज करता है कि वो विचार उसके स्वयं के विचार से मेल नहीं खाता तो ऐसे व्यक्ति को हम फासिस्ट या तानाशाह कह सकते हैं। कुछ ऐसी ही वैचारिक लड़ाई वर्तमान में भारतीय राजनीतिक पटल पर देखने को मिल रही है।
जब से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार भारत के केंद्र में सत्ता में आई है तबसे यह वैचारिक लड़ाई खुलेआम नजर आने लगी है। मुझे याद है, जब आम चुनावों के समय राहुल गांधी ने कहा था कि यह पार्टियों की नहीं, विचारों की लड़ाई है और भारतीय लोकतंत्र ने कांग्रेस विचारधारा को एकदम से नकार दिया था। लेकिन यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी विचार पर देश ने पिछले कई दशकों तक इस विचार को अपने सिर बैठाकर रखा था।
नरेन्द्र मोदी एक उदार चेहरा नहीं हैं और इसके साथ ही अपने से विपरीत विचारों को मानने वाले व्यक्तित्व भी नहीं हैं, यह उन्होंने अपने कार्यों और आदेशों से साबित किया है
इस केंद्र सरकार ने आजादी के बाद पहली बार एक ऐसा आदेश निकाला कि पूर्व प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति सहित केंद्र के पूर्व स्वर्गीय मंत्रियों की पुण्यतिथि व जयंती अब सरकारी स्तर पर नहीं, बल्कि उनके पारिवारिक स्तर पर मनाई जाएगी और कोई भी सरकारी व्यक्ति इसमें हिस्सा नहीं लेगा, यह इस मानसिकता का जीता-जागता उदाहरण है। इसी कारण इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति चाहकर भी शक्तिस्थल नहीं जा सके।
इस आदेश से यह बात समझ में आती है कि वर्तमान में जिस विचारधारा के लोग सत्ता में हैं, वे लोग अपने से विपरीत विचारधारा वाले व्यक्तियों की समाधि पर जाकर पुष्पांजलि व श्रद्धांजलि अर्पित करने के सामान्य शिष्टाचार में भी विश्वास नहीं रखते। जो भी हो, विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के पूर्व प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के लिए इस तरह के आदेश क्या तत्कालीन लोकतांत्रिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ाने जैसा नहीं है? क्या वे प्रधानमंत्री बिना जनादेश के बने थे या तत्कालीन जनता का दिमाग खराब था नही बल्कि बात यह है कि आजादी के बाद पहली बार गैर कांग्रेसी विचारधारा पूर्ण बहूमत के साथ सत्ता में आई है और अब इनके पास अपनी विचारधारा को थोपने का पूरा मौका है और ये लोग ऐसे पूरे प्रयास कर रहे हैं, चाहे ऐसे प्रयासों से किसी का अनादर भी क्यों न होता हो। निश्चित ही ऐसे आदेश लोकतांत्रिक शिष्टाचार तो हरगिज नही कहे जा सकते हैं।
सरकार कुछ निश्चित व्यक्तियों का समूह होती है जो राष्ट्र तथा राज्यों में निश्चित काल के लिए तथा निश्चित पद्धति द्वारा शासन करता है। प्रायः इसके तीन अंग होते हैं - व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका। सरकार के माध्यम से राज्य में राजशासन नीति लागू होती है। सरकार के तंत्र का अभिप्राय उस राजनितिक व्यवस्था से होता है जिसके द्वारा राज्य की सरकार को जाना जाता है। राज्य निरन्तर बदलती हुयी सरकारों द्वारा प्रशासित होते हैं। हर नई सरकार कुछ व्यक्तियों का समूह होती है जो राजनितिक फ़ैसले लेती है या उनपर नियन्त्रण रखती है। सरकार का कार्य नए कानून बनाना, पुराने कानूनों को लागू रखना तथा झगड़ों में मध्यस्थता करना होता है। कुछ समाजों में यह समूह आत्म-मनोनीत या वंशानुगत होता है। बाकी समाजों में, जैसे लोकतंत्र, राजनितिक भूमिका का निर्वाह निरन्तर बदलते हुये व्यक्तियों द्वारा किया जाता है। संसदीय पद्धति में सरकार का अभिप्राय राष्ट्रपतीय पद्धति के अधिशासी शाखा से होता है। इस पद्धति में राष्ट्र में प्रधान मन्त्री एवं मन्त्री परीषद् तथा राज्य में मुख्य मन्त्री एवं मन्त्री परिषद होते हैं। पाश्चात्य देशों में सरकार और तंत्र में साफ़ अन्तर है। जनता द्वारा सरकार का दोबारा चयन न करना इस बात को नहीं दर्शाता है कि जनता अपने राज्य के तंत्र से नाख़ुश है। लेकिन कुछ पूर्णवादी शासन पद्धतियों में यह भेद इतना साफ़ नहीं है। इसका कारण यह है कि वहाँ के शासक अपने फ़ायदे के लिये यह लकीर मिटा देते हैं।
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